संजा तू थारा घर जा थारी बाई मारेगा कुटेगा 

अमित अग्रवाल

चौमहला (मातृभूमि न्यूज)। आज के आधुनिक व डिजिटल युग मे पुरानी परम्पराए व रीति रिवाज दम तोड़ते जा रही है। वही आज भी गांवो व छोटे कस्बो में विशेष रूप से मालवा अंचलों के गांवों में निवास करने वाली महिलाये व कन्याएं। पुरानी परंपरा व रीति रिवाज का अस्तित्व अपनी संस्कृति, अपनी विरासत के तहत बनाये रख रही है। अविवाहित कन्याओं का देवी पूजा का प्रमुख पर्व है संझा, जिसका उद्यापन विवाह उपरांत किया जाने की परंपरा है।

घर के बाहर दीवार पर गाय के गोबर से कन्याए श्राद्धपक्ष के 16 ही दिन विभिन्न कलाकृति बनाती है उन्हें फूल पत्तियों से सजाती है। मोहल्ले के बच्चो के साथ शाम को एकत्रित संध्या समय मे उनका पूजन आरती कर संझा माता के गीत गाती है, “संझा माता जिम ले ,जुठले” जैसे हसी मजाक वाले लोक गीतों को मधुर स्वर में गाया जाता है व उपस्थित सभी बच्चों को प्रसाद वितरित किया जाता है, सभी दिन अलग अलग घर की अलग अलग प्रकार की प्रसादी वितरण की जाती है व अंतिम पांच दिनों किला कोट की आकृति में बनावट की जाती है। जिसमे हाथी, घोड़े, जाड़ी जसोदा, पतली पेमा, बैलगाड़ी आदि की आकृति बनाई जाती है। सोलहवें दिन अमावस्या को संझा देवी को दीवार से उतार कर सभी दिनों की सामग्री के साथ जल में प्रवाहित करते है व सभी मिलकर गीतों के साथ संजा देवी को विदा करते है। पूरे रास्ते नाच, गाने व हँसी ठिठोली करते जाती है। विदाई के पश्चात सामूहिक प्रसाद का वितरण किया जाता है। हालाकि इस तेजी से बदलती दुनिया में यह लोक त्यौहार अपना अस्तित्व खोते जा रहे है।

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